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विश्वे॑ अ॒स्या व्युषि॒ माहि॑नायाः॒ सं यद्गोभि॒रङ्गि॑रसो॒ नव॑न्त। उत्स॑ आसां पर॒मे स॒धस्थ॑ ऋ॒तस्य॑ प॒था स॒रमा॑ विद॒द्गाः ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśve asyā vyuṣi māhināyāḥ saṁ yad gobhir aṅgiraso navanta | utsa āsām parame sadhastha ṛtasya pathā saramā vidad gāḥ ||

पद पाठ

विश्वे॑। अ॒स्याः। वि॒ऽउषि॑। माहि॑नायाः। सम्। यत्। गोभिः॑। अङ्गि॑रसः। नव॑न्त। उत्सः॑। आ॒सा॒म्। प॒र॒मे। स॒धऽस्थे॑। ऋ॒तस्य॑। प॒था। स॒रमा॑। वि॒द॒त्। गाः ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:45» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे वर्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (विश्वे) सम्पूर्ण प्राणी (माहिनायाः) महत्त्व से युक्त (अस्याः) प्रातर्वेला के (व्युषि) विशिष्ट निवास में (गोभिः) किरणों के साथ (अङ्गिरसः) पवन (सम्, नवन्त) अच्छे प्रकार स्तुति करते हैं (यत्) जिससे (आसाम्) इन प्रातर्वेलाओं के (परमे) प्रकृष्ट (सधस्थे) साथ के स्थान में (ऋतस्य) सत्य वा जल के (पथा) मार्ग से (उत्सः) कूप के सदृश (सरमा) प्राप्त हुओं का आदर करनेवाली (गाः) किरणों को (विदत्) जानती है, उन उनको आप लोग विशेष कर जानिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे प्रभातवेला में प्राणी प्रसन्न होते हैं, वैसे ही सन्देहरहित होकर मनुष्य आनन्दित होते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा विश्वे प्राणिनो माहिनाया अस्या व्युषि गोभिस्सहाङ्गिरसः सन्नवन्त यदासां परमे सधस्थ ऋतस्य पथा उत्स इव सरमा गा विदत् तांस्तांश्च यूयं विजानीत ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे) सर्वे (अस्याः) उषसः (व्युषि) विशिष्टे निवासे (माहिनायाः) महत्त्वयुक्तायाः (सम्) (यत्) यतः (गोभिः) किरणैः (अङ्गिरसः) वायवः (नवन्त) स्तुवन्ति (उत्सः) कूप इव (आसाम्) उषसाम् (परमे) प्रकृष्टे (सधस्थे) सहस्थाने (ऋतस्य) सत्यस्योदकस्य वा (पथा) मार्गेण (सरमा) या सरान् प्राप्तान् (विदत्) वेत्ति (गाः) किरणान् ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यता प्रभातवेलायां प्राणिनो हर्षन्ति तथैव निःसन्देहा भूत्वा मनुष्या आनन्दन्ति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे प्रभातकाळी प्राणी प्रसन्न होतात तसे संशयरहित बनल्यास माणसे आनंदित होतात. ॥ ८ ॥